नदी नहीं हैं गंगा
संस्कृति हैं गंगा: गंगा – यह एक शब्द नहीं, नदी नहीं, जलधारा नहीं,
सिंचाई साधन नहीं, बल्कि एक संस्कृति है। संस्कृति की यह पहचान होती है कि
वह चिरकालिक होती है। देश मिट जाते हैं, सीमाएं बदल जाती हैं, नाम बदल
जाते हैं, पर संस्कृति इन सब परिवर्तनों से अछूती रहती है। पर्शिया का नाम
सुना होगा आपने, वह देश खत्म हो गया, पर संस्कृति जीवित रही। बहुत थोड़े से
लोगों ने अपनी उसी विरासत को संभाल भारत में शरण ली और वे पारसी आज भी अपना
अस्तित्व बचाए हुए हैं।
संस्कृति का अर्थ स्पष्ट करने के बाद अब यह बताना आसान हो चला है कि गंगा
संस्कृति कैसे हैं। भारत का आधार हिंदुत्व है और हिंदुत्व सम्पूर्णता में
त्रिदेवॉ से संचालित है। जगत के रचेयता ब्रह्मा जी, पालक विष्णु जी और
संहारकर्ता शिवजी। गंगा इन तीनों से संबंध रखती हैं। वामनावतार में देवताओं
ने विष्णु जी के चरण धोये तो उस चरणामृत को ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल में
रख लिया। भगीरथ की तपस्या से जब गंगा उस कमंडल से निकल कर पृथ्वी पर आयीं
तो स्वयं शिवजी ने उन्हें अपने शीश पर धारण किया। हर पूजा में सबसे पहले
गणेश पूजन होता है, पर गंगा जल से शुद्धिकरण उस गणेश पूजन से भी पहले होता
है। गंगा जल के छींटे पड़ते ही भूमि, शरीर, आत्मा परम पवित्र हो जाती है।
कहा जाता है कि गंगा में डुबकी लगाते ही व्यक्ति समस्त पापों से छूट जाता
है। इस प्रकार हिंदुत्व की कोई धारा, कोई पूजा, कोई विधि गंगा से अछूती
नहीं है। गंगा हिन्दू संस्कृति का आधार हैं।
जीवित हैं गंगा: जीवित और मृत में सबसे बड़ा अंतर यह है कि जीवित
शरीर का क्षरण नहीं होता और प्राण के स्थूल शरीर से अलग होते ही शरीर का
क्षरण शुरू हो जाता है। कोई भी जल लीजिये, शुद्ध से शुद्ध, कुछ समय बाद वह
सड़ जाएगा। गंगा जल को वर्षों रखे रहिए, वह कभी नहीं सड़ता। वैज्ञानिकों ने
जाने कितने सौ सालों पुराने गंगाजल के सैंपल अपनी लैब में रखे हैं, जो जस
के तस हैं। गंगा जल में कभी कीड़े नहीं पड़ते और न ही इसमें कभी दुर्गंध आती
है। हमारे पूर्वजों को भी गंगाजल के इस गुण का पता था। पूजा पद्धति में
लिखा है कि पूजा में बासी जल नहीं रखना चाहिए, पर यह नियम गंगाजल पर लागू
नहीं है। गंगाजल किसी भी जल के साथ मिलकर अपनी प्रकृति नहीं बदलता। नदियां,
नाले गंगा में मिलकर गंगाजल ही हो जाते हैं। जीवित हैं गंगा इसीलिए
जीवनदायिनी भी हैं। जो जीवित है वही दूसरे को भी जीवन दे सकता है। जो स्वयं
जीवन से च्युत है वह किसी और को भी जीवन नहीं दे सकता। गंगा सदियों से
भारत की शारीरिक और आध्यात्मिक प्यास बुझा रही हैं। यह भारतभूमि गंगा जल से
सिंचित है। अन्न के भंडार गंगा की देन हैं। इस भूमि को उर्वरा शक्ति गंगा
का उपहार है।
आध्यात्मिक शक्ति हैं गंगा: यह केवल कपोल कल्पित कल्पना या
अंधविश्वास नहीं बल्कि स्थापित सत्य है कि गंगा एक आध्यात्मिक शक्ति हैं।
जाने कितने
ऋषि-मुनियों ने गंगा तट पर बैठ कर साधना की है। यह क्रम एक-दो वर्ष का नहीं
बल्कि अनंत काल से चला आ रहा है। शायद तब से जब से धरती पर गंगा का अवतरण
हुआ। उन सभी की आध्यात्मिक ऊर्जा का अंश गंगाजल में विद्यमान है। जब भी कोई
व्यक्ति साधनारत होता है तो उसके शरीर का ऊर्जापुंज ब्रह्मांड की ऊर्जा से
एकाकार हो जाता है। इसके साथ ही उसके चारों ओर की ऊर्जा भी सकारात्मक
ऊर्जा में परिवर्तित होने लगती है। उसका आभामंडल उसकी साधना के साथ बढ़ता
जाता है, इसके साथ ही उस आभामंडल का दायरा भी बढ़ता है। जल में ऊर्जा को
अवशोषित करने का गुण सर्वाधिक होता है। ऐसे में यदि जलराशि के निकट कोई
व्यक्ति साधनरत है तो उस जलराशि पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही पड़ेगा। यही कारण
है कि उन लाखों-करोड़ों ऋषियों की साधना की शक्ति से गंगा स्वयं भी एक
आध्यात्मिक शक्ति हो गयी हैं।
इस लेख में जितनी बार मैंने ‘गंगा’ लिखा उतनी बार कुछ क्षणो के लिए मैं
विचारशून्य हो गयी, मेरे शब्द समाप्त हो गए। इस एक शब्द के आगे क्या लिखूँ
समझ नहीं आया। अभी भी लग रहा है, कि सब कुछ छूट गया। गंगा माँ हैं, गंगा
देवी हैं, गंगा देवों का उपहार हैं, गंगा भारत हैं, गंगा जीवन हैं। गंगा
पापहरणी हैं, मोक्षदायिनी हैं। गंगा में विलीन होकर गंदा नाला भी गंगाजल हो
जाता है। समस्त नदियां सागर में गिरकर अपना अस्तित्व खो देती हैं, पर गंगा
वह नदी हैं जो सागर में गिरकर सागर को भी सागर नहीं रहने देतीं, उसे
गंगासागर बना देती हैं।
देवी सुरेश्वरी भगवती गंगे!
त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे!
शंकर मौली विहारिणी विमले!
मम मतिरास्ताम तव पदकमले !
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